ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना निर्माण से पहले ही इसका विरोध कर दिया था, लेकिन इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया।
ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना का विरोध उस वक्त ही शुरू हो गया था जब इस परियोजना का निर्माण शुरू नहीं हुआ था। ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना के निर्माण में पर्यावरण पहलुओं का ध्यान नहीं रखा गया था। इसी को देखते हुए प्रसिद्ध पर्यावरणविद् अखिल भारतीय ग्लेशियर स्टडी ग्रुप के मुख्य सदस्य चंडी प्रसाद भट्ट ने परियोजना निर्माण से पहले ही इसका विरोध कर दिया था।
वर्ष 2010 में चंडी प्रसाद भट्ट ने उच्चतम न्यायालय के सदस्य को पत्र भेजकर क्षेत्र की संवेदनशीलता, जीव जंतु, वन संपदा व पर्यावरणीय नुकसान को देखते हुए परियोजना को निरस्त करने की मांग उठाई थी। लेकिन इस ओर किसी ने ध्यान नहीं दिया। उन्होंने बताया कि ऋषि गंगा का उद्गम स्थल 18000 फीट की ऊंचाई पर त्रिशूल नाले से होकर आता है। परियोजना नंदा देवी बायोस्फीयर रिजर्व के कोर जोन के समीप बनी थी। वर्ष 1974 में स्थानीय लोगों के चिपको आंदोलन चलाने के बाद यूपी सरकार ने डॉ वीरेंद्र कुमार की अध्यक्षता में रैणी चिपको आंदोलन कमेटी का गठन किया था, जिसमें शीर्षस्थ वन विज्ञानी, भूमि संरक्षण के विशेषज्ञ और जनप्रतिनिधियों को शामिल किया गया था।
कमेटी की संस्तुति के आधार पर ऋषि गंगा से लेकर अलकनंदा घाटी के लगभग 1200 वर्ग किमी क्षेत्रों में कार्य योजना के आधार पर होने वाले सभी वन कटानो को निरस्त कर दिया गया था। बावजूद इसके पर्यावरणीय पहलू की अनदेखी कर वर्ष 2007 में ऋषि गंगा पावर प्रोजेक्ट का निर्माण हुआ।
प्राकृतिक आपदाओं से घिर गई थी परियोजना
उत्तराखंड में साल 2007 से ऋषि गंगा जल विद्युत परियोजना निर्माण का कार्य शुरू हो गया था, लेकिन शुरुआत से ही परियोजना को प्राकृतिक आपदाओं ने घेर लिया था। वरिष्ठ अधिवक्ता हरीश पुजारी ने बताया कि वर्ष 2008 में परियोजना पर अचानक चट्टानें गिरने से उसे काफी नुकसान उठाना पड़ा था। वर्ष 2010 में चट्टान खिसकने के कारण परियोजना में काम कर रहे तीन मजदूरों की मौके पर ही मौत हो गई थी। जैसे-तैसे वर्ष 2011 में परियोजना से बिजली उत्पादन शुरू हुआ ही था कि परियोजना के मालिक राकेश मेहरा, निवासी-लुधियाना के सिर पर चट्टान गिर गई और वे अकाल मौत का शिकार हो गए थे। इस तरह की आपदाएं हिमालय में न हों इसके लिए हिमालय क्षेत्र में तत्काल टनलों के निर्माण पर रोक लगा देनी चाहिए।
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