वैश्विक महामारी कोरोना के मोर्चे पर उत्तराखंड आज राहत यूं ही महसूस नहीं कर रहा है। इसके पीछे छिपा हुआ है सैकड़ों कोरोना योद्धाओं का त्याग और बलिदान, जिन्होंने कोरोना के प्रदेश में कदम रखते ही मोर्चा संभाल लिया था।
उत्तराखंड : वैश्विक महामारी कोरोना के मोर्चे पर उत्तराखंड आज राहत यूं ही महसूस नहीं कर रहा है। इसके पीछे छिपा हुआ है सैकड़ों कोरोना योद्धाओं का त्याग और बलिदान, जिन्होंने कोरोना के प्रदेश में कदम रखते ही मोर्चा संभाल लिया था। कोरोनाकाल में प्रदेश के चिकित्सक और मेडिकल स्टाफ जहां मरीजों की सेवा में तत्पर रहा। वहीं, पुलिस ने नींद और भूख की परवाह किए बगैर सड़क से लेकर अस्पताल तक व्यवस्था बनाए रखने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
कोरोनाकाल के दौरान की गई इस सेवा के लिए उत्तराखंड पुलिस ने शहरवासियों का दिल भी जीता। जब कोरोना का प्रसार सबसे तेज रहा और प्रदेशवासी घरों में कैद रहने को मजबूर हो गए। तब भी ये योद्धा अपनी और अपने परिवार की परवाह किए बगैर पूरी कर्मठता के साथ अपने कर्तव्य पथ पर डटे रहे।
ऐसे ही कोरोना योद्धाओं में से एक हैं पुलिस अधीक्षक (अपराध एवं कानून व्यवस्था) श्वेता चौबे। जब प्रदेश में कोरोना ने दस्तक दी, तब उनके कंधों पर पुलिस अधीक्षक नगर की अहम जिम्मेदारी थी। दून को कोरोना के साये से मुक्त कराने और हर शहरवासी तक मदद पहुंचाने के लिए उन्होंने लंबे समय तक अपने परिवार से भी दूरी बनाए रखी।
श्वेता बताती हैं कि कोरोनाकाल में पुलिस अधीक्षक नगर रहते हुए उनके पास शहरी कानून व्यवस्था, वीआइपी मूवमेंट के साथ जरूरतमंदों तक राशन पहुंचाने की बड़ी जिम्मेदारी थी। इसके लिए वह सुबह ही घर से निकल जाती थीं। रात को कब घर लौटना होगा, इस बारे में कुछ पता नहीं होता था।
लॉकडाउन की यादें ताजा करते हुए श्वेता कहती हैं कि मेरे लिए उस समय सबसे अहम यह था कि लॉकडाउन की वजह से कोई भूखा न रह जाए। इसके अलावा पुलिस कंट्रोल रूम में आने वाले फोन कॉल पर भी नजर रखनी पड़ती थी। जैसे ही कहीं से भोजन की व्यवस्था के लिए फोन आता तो प्राथमिकता के आधार पर वहां मदद पहुंचाने की व्यवस्था की जाती।
जनता की फिक्र करने के साथ परिवार को भी कोरोना संक्रमण से बचाना जरूरी था। इसलिए बच्चों से दूरी बनानी पड़ी। उन्हें 13 साल की बेटी और 8 साल के बेटे को अलग कमरों में शिफ्ट कर दिया। कोशिश रहती थी कि जब बच्चे सो जाएं, तभी घर जाऊं। हालांकि, बच्चों का ख्याल रखना और उनसे नियमित संवाद रखना भी जरूरी था। जिससे उन्हें अकेलापन महसूस न हो।
इसलिए ड्यूटी के दौरान जब भी थोड़ा वक्त मिलता, उनसे फोन पर बात कर लेती। मगर, बच्चे तो बच्चे होते हैं। उनके बालमन को समझाना बहुत मुश्किल काम है। जैसे ही घर के बाहर गाड़ी की आवाज सुनते, फौरन दौड़ पड़ते। ऐसे में बच्चों के पास पूरे एहतियात के साथ ही जाती थी। स्नान करने के साथ खुद को सैनिटाइज करती, तब बच्चों से मिलती।
कई बार तो 15 से 20 दिन तक बच्चों से मिलना नहीं हो पाया। इससे काफी दुख होता था। मगर, इस बात की खुशी भी थी कि जरूरतमंदों के काम आ रही हूं। इस अभियान में समाजसेवी संस्थाओं ने भी पुलिस का पूरा सहयोग दिया। उनसे जहां भी जरूरतमंदों को राशन, दूध या सब्जी पहुंचाने के लिए कहा जाता था, वहां सामान लेकर पहुंच जाते थे।
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