उत्तराखंड में इगास बग्वाल की धूम, जानें इसका इतिहास, परंपरा और खासियतें

इगास बग्वाल, जिसे दिवाली के बाद 11वें दिन मनाया जाता है, एक ऐसा पर्व है जो गढ़वाल क्षेत्र में वीरता, बलिदान, और प्रेम की अनोखी कहानी से जुड़ा हुआ है।


उत्तराखंड : इगास बग्वाल, जिसे दिवाली के बाद 11वें दिन मनाया जाता है, एक ऐसा पर्व है जो गढ़वाल क्षेत्र में वीरता, बलिदान, और प्रेम की अनोखी कहानी से जुड़ा हुआ है। इस पर्व का मुख्य किरदार है वीर माधो सिंह भंडारी, जिनकी साहसिक गाथा आज भी उत्तराखंड की लोकसंस्कृति में जीवित है। इस पर्व का मूल कथानक 17वीं सदी की एक महाकाव्यात्मक घटना पर आधारित है, जिसमें माधो सिंह ने अपने राज्य और सम्मान की रक्षा के लिए दुश्मनों से लोहा लिया।

तिब्बत युद्ध की शुरुआत

कहानी शुरू होती है लगभग 400 साल पहले की, जब गढ़वाल के महाराजा महिपत शाह के शासनकाल में तिब्बतियों ने गढ़वाल राज्य के वीर भड़ बर्थवाल बंधुओं की हत्या कर दी थी। इस कायरतापूर्ण हमले की खबर जब महाराजा को मिली, तो वह बेहद क्रोधित हुए। उन्होंने तुरंत अपने सेनापति वीर माधो सिंह भंडारी को बुलाया और तिब्बत पर आक्रमण का आदेश दिया। माधो सिंह न केवल एक कुशल सेनापति थे, बल्कि गढ़वाल की जनता के प्रति समर्पित और निष्ठावान योद्धा भी थे। उन्होंने तुरंत महाराजा का आदेश स्वीकार कर लिया और युद्ध की तैयारी में जुट गए।

सेना का गठन और प्रस्थान

माधो सिंह ने टिहरी, उत्तरकाशी, जौनसार, श्रीनगर, और अन्य गढ़वाली क्षेत्रों से साहसी योद्धाओं को एकत्र किया। उन्होंने एक सशक्त और उत्साही सेना तैयार की, जिसमें गढ़वाल के विभिन्न हिस्सों के वीर योद्धा शामिल थे। पूरी तैयारी के बाद माधो सिंह अपनी सेना के साथ तिब्बत की ओर बढ़े। गढ़वाल के लोगों ने अपने घरों से निकलकर, अपने प्रियजन योद्धाओं को अंतिम विदाई दी। सभी लोग युद्ध के लिए निकलने वाले वीरों की सुरक्षा और विजय की कामना कर रहे थे।

तिब्बत पर आक्रमण और विजय

तिब्बत की सीमा पर पहुँचकर माधो सिंह ने साहसिक नेतृत्व का परिचय देते हुए राजा द्वापा नरेश पर आक्रमण किया। यह युद्ध दोनों पक्षों के लिए कठिन और भयंकर था, लेकिन माधो सिंह और उनकी सेना ने अद्भुत वीरता का प्रदर्शन किया। अपनी युद्धकौशल और धैर्य के बल पर उन्होंने तिब्बती सेना को पराजित कर दिया। तिब्बत की हार के बाद माधो सिंह ने वहाँ कर लगाया और सीमा पर मुनारें (पत्थर के स्तंभ) गाड़े, जो विजय के प्रतीक थे। ये मुनारें आज भी तिब्बत की सीमा पर गढ़वाल राज्य की एक स्थायी निशानी के रूप में खड़ी हैं। बाद में, जब अंग्रेजों ने मैक मोहन रेखा को सीमारेखा के रूप में चिन्हित किया, तब इन्हीं मुनारों को सीमा के आधार के रूप में मान्यता दी गई।

वीरों की अनुपस्थिति में शोक की लहर

युद्ध जीतने के बाद माधो सिंह और उनकी सेना गढ़वाल लौटने लगे। हालांकि, इस यात्रा में उन्हें दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों से होकर गुजरना पड़ा, जहाँ अचानक भारी बर्फबारी होने लगी। बर्फबारी के कारण सभी रास्ते बंद हो गए और सेना के लौटने का समाचार गढ़वाल के गाँवों तक नहीं पहुँच पाया। कई दिनों तक कोई खबर न मिलने के कारण पूरे गढ़वाल क्षेत्र में शोक और निराशा फैल गई। लोगों को लगा कि युद्ध में वीर माधो सिंह और उनकी सेना शहीद हो गई है। गांववालों के लिए यह एक गहरा आघात था। इसलिए, शोकग्रस्त ग्रामीणों ने दीपावली का त्योहार नहीं मनाया।

माधो सिंह के विरोधियों ने उनकी मृत्यु की अफवाह फैला दी, जिससे स्थिति और भी विकट हो गई। गांव के लोग अपने प्रियजनों की वापसी की आशा छोड़ चुके थे। इस कठिन समय में उनके दुख और वेदना को कई कवियों ने अपने कविताओं में जगह दी। वीरों की अनुपस्थिति और उनकी वीरता की चर्चा से पूरे गढ़वाल का वातावरण भारी हो उठा था।

उच्छनंदन गढ़ में उदिना से प्रेम कथा

युद्ध के बाद रास्ता भटकते हुए माधो सिंह और उनकी सेना सुरक्षित उच्छनंदन गढ़ पहुंचे। वहाँ उनकी मुलाकात गढ़पति की बेटी उदिना से हुई, जो अद्वितीय सौंदर्य और बुद्धिमत्ता की धनी थी। दोनों एक-दूसरे को देखकर आकर्षित हुए और जल्द ही उनके बीच प्रेम का अंकुर फूट पड़ा। कहा जाता है कि उदिना का विवाह महज दो दिन बाद होने वाला था।

विवाह के दिन माधो सिंह ने अपनी जौनसारी सेना के वीरों को नर्तक के वेश में उदिना के विवाह स्थल पर भेजा। इस अवसर पर नर्तकों के रूप में उनकी सेना ने अपनी प्रस्तुति दी। नृत्य देखते हुए उदिना ने माधो सिंह को पहचान लिया, और संकेत के साथ उन्होंने उदिना को लेकर वहाँ से निकलने का साहसिक निर्णय लिया। इस प्रकार, माधो सिंह ने न केवल युद्ध जीता, बल्कि अपने प्रेम को भी प्राप्त किया।

गढ़वाल में इगास बग्वाल का आयोजन

युद्ध और प्रेम की यह गाथा समाप्त नहीं हुई थी। जब माधो सिंह और उनके योद्धा गढ़वाल में श्रीनगर वापस लौटे, तो पूरे क्षेत्र में हर्ष और उल्लास का वातावरण फैल गया। वीरों की वापसी की खबर सुनकर लोगों में जोश और उत्साह जाग उठा। यह वह क्षण था, जब शोक का माहौल हर्षोल्लास में बदल गया।

यही वह समय था, जब ग्रामीणों ने दीपावली के बाद इगास बग्वाल के रूप में इस विजय और वीरता का पर्व मनाने का निर्णय लिया। इस दिन पूरे गाँव के लोग एकत्रित हुए, दीप जलाए और नाच-गाकर अपने वीरों का स्वागत किया। इगास बग्वाल का यह उत्सव गढ़वाल क्षेत्र के लिए एक अनोखा त्योहार बन गया, जो वीरता और प्रेम की कहानी का जीवंत प्रतीक है।

इगास बग्वाल की परंपराएँ

इगास बग्वाल में विशेष तौर पर भैलू जलाने की परंपरा निभाई जाती है। भैलू एक प्रकार का जलता हुआ मशाल होता है, जिसे लोग गाँव में घुमाते हैं और इस पर्व की विशेषता का प्रतीक मानते हैं। इस भैलू का निर्माण चीड के पेड़ की लकड़ी से किया जाता है, जो जलने पर लंबे समय तक रोशनी बिखेरती है। भैलू को जलाने का मतलब होता है अंधेरे को मात देना, और वीरों की वापसी से गांव में छाई खुशी को मनाना।

इगास बग्वाल का महत्व

इगास बग्वाल केवल एक पर्व नहीं, बल्कि वीरता, बलिदान और प्रेम की कहानी है। यह गढ़वाल के वीर सैनिकों की स्मृति को संजोए रखने का माध्यम है। माधो सिंह भंडारी और उनकी सेना की वीरता, त्याग, और निष्ठा का प्रतीक है इगास बग्वाल। आज भी गढ़वाल के लोग इस पर्व को उल्लास और उत्साह के साथ मनाते हैं, और यह पर्व सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके साहस, प्रेम और वीरता का प्रतीक बना हुआ है।

इस प्रकार, इगास बग्वाल न केवल दीपावली के बाद का एक साधारण त्योहार है, बल्कि वीर माधो सिंह भंडारी की गाथा और गढ़वाल की विरासत का जीवंत उत्सव है, जो समय-समय पर गढ़वालियों के साहस और संस्कृति का प्रतीक बनकर आज भी जीवित है।

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